चिपको अभियान की तर्ज पर ओडिशा के बलरामपुर इलाके में एक अभियान को सफलतापूर्वक अंजाम दिया गया है। यहाँ के लोगों द्वारा पेड़ों को बचाने के लिए एक प्रस्तावित अलकोहल प्लांट का जमकर विरोध किया गया और अंततः सरकार ने प्लांट को इस इलाके में न लगाने की कायवाद शुरू करदी है।
जब हम अपनी सरकारें चुनते हैं तो हम यह भी चुनते हैं कि हमारे लिए फैसले एक ऐसी संस्था द्वारा लिए जाएँ जिसे हम और आप मिलकर चुनें। हालाँकि यह जरुरी नहीं कि हर बार सरकार नाम की यह संस्था, हमारे हित में ही फैसले ले। प्रायः यह देखा जाता है कि हमारी सरकारें ऐसे फैसले भी लेती हैं जो जन-साधारण की इच्छाओं के विपरीत होते हैं।
ऐसी परिस्थिति में हमारे पास दो विकल्प होते हैं, या तो हम शांत रहकर जो भी फैसले लिए जा रहे हैं उनको स्वीकार करें, या हम उठ खड़े हों और अपने हित के लिए उन फैसलों का विरोध करें। और जब ऐसे विरोध शुरू होते हैं तो भले ही इन्हे कामयाबी न मिले, लेकिन अगर विरोध का कारण उचित है तो ऐसे अभियान जरूर सफल होते हैं। आइये ओडिशा के बलरामपुर में ऐसे ही एक अभियान के बारे में आपको बताते हैं।
झींकारगाड़ा के जंगल: आखिर किसके?
झींकारगाड़ा वन, जो लगभग 243 हेक्टेयर में फैला हुआ है, न केवल बलरामपुर के वासियों के लिए बल्कि धेनकनाल जिले के 10 अन्य गांवों के लिए एक आम संपत्ति के तौर पर जाना जाता रहा है। वर्ष 2014 में, राज्य सरकार ने “भूमि बैंक” के तहत झींकारगाड़ा जंगल के कुछ हिस्सों को अपने अधिकार क्षेत्र में लेने का फैसला किया। गौरतलब है कि ‘भूमि बैंक’, औद्योगिक परियोजनाओं की सुविधा के लिए सभी जिलों में बनाया जा रहा है। भूमि बैंक योजना के तहत, सरकार आमतौर पर घेराबंदी मुक्त भूमि का चुनाव करती है।
यह वन, जो इलाके के ग्रामीणों के अधिकार क्षेत्र में रहा है, राज्य विभाग के अधिकार क्षेत्र वाले तमाम वनों की तुलना में अधिक वृक्ष घनत्व वाला है। इसी कारण के चलते यह वन, वर्ष 2014 में सरकार की नजर में आया, लेकिन इलाके के ग्रामीणों ने इसपर अपनी आपत्तियां जताई, लेकिन धेनकनाल जिला प्रशासन ने वन की भूमि को उद्योग को सौंप दी। यह प्रोजेक्ट पी एंड ए बॉटलर्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा स्थापित किया जाना था। इस अलकोहल परियोजना को झींकारगाड़ा के 12 एकड़ वनभूमि की आवश्यकता थी।
ग्रामीण वासी इस बात से क्षुब्ध होकर ओडिशा उच्च न्यायालय और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में पहुंच गए, जहाँ इस पूरे मामले की सुनवाई चल रही है। चूँकि उच्च न्यायालय ने इस प्रोजेक्ट पर रोक लगाने के कोई निर्देश नहीं दिए, इसलिए गाँव वासियों ने इस प्रजेक्ट को रोकने का पूरा जिम्मा अपने सर ले लेने का सोचा। और जब प्रदेश के मुख्यमंत्री, नवीन पटनायक ने नवंबर के पहले सप्ताह में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से इस परियोजना के सम्बन्ध में हुए समारोह को सम्बोधित किया, तो बलरामपुर की महिलाओं ने वन में लगे पेड़ों को गले लगा लिया। इस पूरे अभियान ने राज्य सरकार को एक संदेश भेजा कि वे आसानी से उन पेड़ों को नहीं सौंपेंगे जिन्हें उन्होंने वर्षों तक पोषित किया था।
महिला केंद्रित रहा है पूरा अभियान
17 नवंबर को जिला प्रशासन सुबह 4 बजे झींकारगाड़ा वन पंहुचा और पेड़ काटने शुरू करदिये, इससे पहले भी दो बार तारीखों का एलान हुआ था लेकिन पेड़ काटने के लिए प्रशासन की ओर से कोई नहीं पंहुचा था। ऐसा माना जाता है कि जबतक ग्रामीण वासी कुछ समझ पाते, बड़ी-बड़ी मशीनों की मदद से 1000 पेड़ों को काट दिया गया था। इस पूरी प्रक्रिया में भरी पुलिस बल की तैनाती थी।
“हम गाँव वालों को कुछ भी पता नहीं लगा, और जबतक हम कुछ जान पाते लगभग 1000 पेड़ कट चुके थे,” एक ग्रामीण महिला बताती हैं।
जब यहाँ की महिलाओं को पता लगा कि पेड़ों को काटा जा रहा है तो उन्होंने पेड़ों से चिपकना शुरू करदिया, और इस बात को लेकर अड़ गयी कि पेड़ों को अगर काटा जाएगा तो उसके साथ उन्हें भी उन मशीनों से काट दिया जाए।
इस गज़ब की इच्छाशक्ति ने राज्य के मुख्यमंत्री तक को हिला कर रख दिया। प्रदेश में इन महिलाओं की तारीफों के पुल बंधने लगे। इस सम्बन्ध में जागरूकता फ़ैलाने के लिए, महिलाएं आपस में पंचायत का सञ्चालन करने लगी और वो इस पूरे अभियान को सफल बनाने के लिए अपने साथ ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को जोड़ने का प्रयास करने लगी।
यह पूरा वन यहाँ के निवासियों के लिए इसलिए भी खास है क्यूंकि यह वन, साल (शोरिया रोबस्टा), पियासाला या मालाबार किनो (पतरोकार्पस मर्सुपियम), अमला (भारतीय हंसबेरी), हरिडा (टर्मिनलिया चेबुला), बहादा (टर्मिनलिया बेलिरिका), आम आम के पेड़ों का घर है।
क्या कहते हैं यहाँ के लोग?
“हमारे पूर्वजों ने इस वन में पेड़ों की तमाम किस्मों को लगाया है और हम सब मिलकर वर्ष 1972 से इस पूरे जंगल की देखभाल कर रहे हैं। हालांकि, जंगल इससे पहले भी अस्तित्व में था,” स्थानीय प्रशासन द्वारा काटे गए पेड़ों को देखते हुए 75 वर्षीय दुशासन पारिदा ने कहा।
“गांव में रहने वाले हर दो परिवारों में से एक सदस्य, वन को सुबह से लेकर रात तक सुरक्षित रखने के लिए जंगल में रहता था। ये पेड़ हमारे बच्चों की तरह थे,” 33 वर्षीय सकुंतला जेना ने कहा, जो पिछले 15 सालों से गांव में रह रहे हैं।
पानी के स्तर को बनाए रखने में वन ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 36 वर्षीय सुस्मिता सेठी ने कहा,
अन्यथा हम पानी की कमी के कारण बहुत पीड़ित थे क्योंकि यह लगभग शुष्क क्षेत्र है। इस जंगल के बिना हमारा जीवन खराब हो जाएगा।
60 वर्षीय चतुरी साहू ने एक साहसी आवाज में कहा, “हम जंगल की रक्षा करते हुए मर जाना ज्यादा पसंद करेंगे, लेकिन अल्कोहल कारखाने को हमारे जंगल पर बनने और हमारे पुरुष सदस्यों को अल्कोहल नशेड़ी बनने के लिए प्रोत्साहित करके हमारे परिवारों को खराब करने की अनुमति नहीं देंगे।”
सरकार को सुननी पड़ी ग्रामीणों की आवाज़
एक अलकोहल कारखाने की स्थापना का बड़े पैमाने पर हुए इस विरोध को देखते हुए मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने मौजूदा पट्टा समझौते को रद्द करने का आदेश दिया और साथ ही परियोजना के स्थानांतरण के लिए भी निर्देश दिए। इससे पहले, मुख्यमंत्री ने पेड़ गिरने से रोकने का निर्देश दिया था और संबंधित राजस्व विभागीय आयुक्त द्वारा जांच का भी आदेश दिया था। यह न केवल यहाँ के लोगों की जीत है, बल्कि इस पूरे अभियान की भी जीत है।
यह हमारे प्रकृति, पर्यावरण और इच्छाशक्ति की जीत है जिसके आगे सरकार को भी झुकने के लिए मजबूर होना पड़ा। वास्तव में मानव-प्रकृति के आपसी सम्बन्ध पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले अभियानों पर हमे ऐसे ही उठ खड़े होना चाहिए और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठानी चाहिए।
हम इस पूरी मुहिम में महिलाओं के प्रयास की विशेष सराहना करते हैं क्यूंकि उनकी सफलता इस बात का प्रतीक है कि ने केवल शहर की, बल्कि हमारे गाँव में निवास करने वाली महिलाओं में भी गजब की इच्छाशक्ति है। वो चाहें तो क्या कुछ हासिल नहीं कर सकती। हम बलरामपुर के सभी जनों को चायपानी की पूरी टीम की ओर से इस सफलता पर हार्दिक बधाई देते हैं।
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