आज देश की पहली महिला शिक्षक, समाज सेविका सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले की 187वीं जयंती है। सावित्रीबाई फुले ने उस समय महिलाओं के खिलाफ अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी जब महिलाओं पर अत्याचार अपने चरम पर हुआ करता था।
पहली आधुनिक भारतीय नारीवादी, जो महिलाओं के अधिकारों के लिए खड़ी हुईं और विधवाओं द्वारा सर मुड़वाने की परंपरा के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। उनका जन्म 3 जनवरी, 1831 को हुआ था। आज हम उन्हें याद करते हुए उनके जीवन से जुडी 7 बातें आपसे साझा कर रहे हैं। आप इस लेख को इस बात के सन्दर्भ में पढ़ें कि उन्होंने यह सब उस समय किया जब महिलाओं के लिए यह सबकुछ करना नामुमकिन सा था।
संभवतः भारतीय समाज की सबसे जानी पहचानी नारीवादी आवाज़, फुले का जन्म महाराष्ट्र के नायगाँव में किसानों के एक परिवार में हुआ था। आज के युग में जहाँ मीडिया, सोशल मीडिया, अदालतें, पुलिस, सरकारें, एनजीओ एवं अन्य स्वयं सेवक समूह मौजूद हैं, वहां भी महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ना पड़ता है। फुले तो ऐसे युग में जन्मी थी जब हर लड़ाई उन्हें अकेले लड़नी पड़ी थी, वह असल मायनों में वन वीमेन आर्मी थी।
1 – ब्रिटिश शासन के दौरान, उन्होंने अपने पति, ज्योतिराव फुले के साथ देश में महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। उन्हें भेदभाव के खिलाफ कविताएँ लिखीं, शिक्षा की ज़रूरत के बारे में बात की, जबकि ज्योतिराव ने जातिगत अत्याचारों के खिलाफ बात की। उन्होंने समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, सती, बाल विवाह और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ भी सक्रिय रूप से राय दी।
2 – सावित्रीबाई ने वर्ष 1848 में अपने पति के साथ एक स्कूल की शुरुआत की। उस विद्यालय में केवल नौ छात्राएं थी और वह उनकी शिक्षिका थीं. उन्होंने उन छात्राओं को स्कूल छोड़ने से रोकने के लिए वजीफे की पेशकश की (आज के दौर में मिड डे मील स्कीम उसी सोच का नतीजा है)। उनके विद्यालय में अभिभावक-शिक्षक बैठकें हुआ करती थी, जो एक आधुनिक अवधारणा है। इसके अलावा वो अपने विद्यालय में व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया करती थी। वह न केवल देश की पहली महिला शिक्षिक बनीं बल्कि उन्होंने ऐसे 17 और स्कूलों की स्थापना की (इतिहास की कुछ किताबों में उनके द्वारा स्थापित स्कूलों की संख्या को 18 बताया गया है)। लड़कियों के लिए पहला स्कूल उन्होंने ही खोला, उनके स्कूल के द्वार दलित लड़कियां के लिए भी खुले थे।
3 – एक किस्सा ऐसा भी सामने आता है जब उनपर स्कूल जाने के दौरान पत्थर फेंक कर मारे जाते थे। उनपर गंदगी, कीचड, गोबर और कूड़ा फेंका जाता था। अमानवीय बर्ताव को झेलते हुए भी वो पढ़ती-पढ़ाती रही क्यूंकि उन्हें स्त्री शिक्षा की अहमियत का अंदाजा था, वो भी ऐसे दौर में जब लड़कियों का पढ़ना लिखना अच्छा नहीं माना जाता था। सावित्रीबाई अपने साथ एक जोड़ी कपड़ा साथ लेकर जाती थीं और स्कूल पहुंचकर पुराने कपड़े बदल लेती थीं।
4 – उन्होंने जो ठाना वो करके दिखाया, उन्होंने जो प्रण लिया उसे पूरा किया और जो सपने देखे उसे पूरा करने का हर संभव प्रयास। उन्होंने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को किस कदर समझा इसका एक उदाहरण तब मिला जब वो आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण महिला, काशीबाई को अपने घर में ले आयी। और उन्होंने अपने ही घर में काशीबाई के बच्चे की डिलिवरी करवाई, उस बच्चे को उन्होंने ‘यशंवत राव’ नाम दिया। और इसके बाद उन्होंने यशवंत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया। इसी यशवंत राव के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए उन्होंने उसकी परवरिश करते हुए डॉक्टर बनाया।
5 – सावित्रीबाई फुले ने गर्भवती बलात्कार पीडि़तों के लिए एक देखभाल केंद्र खोला और उन्हें सहायता प्रदान की। उनके द्वारा स्थापित इस देखभाल केंद्र को “बालहत्या प्रतिबंधक गृह” कहा जाता था। उन्होंने विधवाओं को यह अवसर दिया कि वे अपने बच्चों को उनके यहाँ पैदा करें। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्यूंकि उस दौर में उच्च जाती में किसी विधवा का गर्भवती होना, बुरी नजर से देखा जाता था। अक्सर औरतों को अपने बच्चों को गिराना पड़ता था, फुले उन सभी महिलाओं के लिए एक मसीहा के रूप में उभरी।
6 – वर्ष 1897 में पुणे के आसपास के क्षेत्र में जब प्लेग का प्रकोप फैला, तो सावित्रीबाई फुले और उनके दत्तक पुत्र, यशवंत ने इससे प्रभावित लोगों के इलाज के लिए एक क्लिनिक खोला। उन्होंने इन मरीज़ों की किस कदर देखभाल की इस बात का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि क्लिनिक में भर्ती रोगियों की देखभाल करते हुए, सावित्रीबाई स्वयं इस बीमारी की चपेट में आ गयीं और 10 मार्च, 1897 को एक प्लेग रोगी की सेवा करते हुए उनकी मृत्यु हो गई।
7 – वर्ष1998 में, सावित्रीबाई के सम्मान में इंडिया पोस्ट द्वारा एक डाक टिकट जारी किया गया था। 2014 में, सावित्रीबाई फुले को श्रद्धांजलि देते हुए महाराष्ट्र सरकार ने उनके नाम पर पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदल कर सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय कर दिया।
हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि ऐसी महान शख्सियत को वह नाम, वह पहचान एवं वह सम्मान नहीं मिला जिसकी वे हकदार थी। हाँ, हम उन्हें अवश्य आज के दिन याद कर रहे हैं, तमाम ट्वीटस होंगे, उनकी जयंती पर उन्हें नमन होगा लेकिन उनके द्वारा डाली गयी नीवं को आखिर किस हद तक हम सफल बना पाए हैं? हमे यह समझना होगा वह केवल अपने ही समय की कुप्रथाओं के खिलाफ खड़ी होने वाली नायिका नहीं थी, बल्कि वे हर उस वक़्त की नायिका हैं जहाँ बराबरी नहीं है, जहाँ भेदभाव है और जहाँ लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हम उन्हें केवल नमन नहीं करेंगे बल्कि यह उम्मीद भी करेंगे कि हम सभी सावित्रीबाई फुले की महत्वता को समझें एवं उनके आदर्शों का अनुसरण भी करें.
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