“जब कानून तोड़ने वालों को कानून बनाने की ज़िम्मेदारी दी जाती है, तो संविधान को बचाने के लिए केवल एक ही विकल्प होता है- न्यायपालिका।”
भारत में 1,320 मिलियन लोगों में से 1.5 मिलियन से अधिक लोग पेशेवर रूप से कानूनी जानकर हैं। लेकिन प्रति न्यायाधीश, अदालती मामले के अनुपात पर चर्चा कोई नई बात नहीं है। वास्तव में प्रकाश में यह बात लायी जानी चाहिए कि जब भी हम न्याय की बात करते हैं, हम उम्मीद के लिए केवल न्यायिक व्यवस्था की ओर देखते हैं। जिस बात को हम अक्सर अनदेखा कर दिया करते हैं वह यह है कि न्याय केवल अदालतों द्वारा ही नहीं किया जा सकता है।
न्याय एक दार्शनिक शब्द है। इसे सरकार के किसी भी हिस्से, अंग या स्तर द्वारा सेवा के रूप में प्रदान किया जा सकता है – चाहे वह पुलिस हो, एक सरकारी कार्यालय हो या एक ग्राम पंचायत हो। लेकिन मौजूदा दौर में न्यायपालिका पर हमारी निर्भरता का स्तर तेजी से बढ़ रहा है, जो खतरनाक है और हमे परेशान कर सकता है।
अब सवाल यह उठता है- कौन इस स्थिति को बदल सकता है? अपने निर्णय और पहलों के जरिये, जनता के साथ न्याय कौन कर सकता है? यह हमारे देश के कानून निर्माताओं (सांसदों, विधायकों और एमएलसी) की ज़िम्मेदारी है कि वे प्रत्येक व्यक्ति एवं उनके मुद्दों (जिसपर उन्हें ध्यान देने की आवश्यकता है) के साथ उचित एवं पारदर्शितापूर्ण व्यवहार करें। बेहतर समाज बनाने के लिए काम करना, उनकी जिम्मेदारी है।
हालांकि, अपने स्वयं के फायदे के लिए, संबंधित राजनीतिक दलों, विचारधाराओं और समुदाय को लाभ पहुंचाने की तलाश में, राष्ट्रीय हित का सवाल उनसे दूर होता चला जाता है। समस्या उनकी क्षमता में नहीं है, बल्कि इच्छा, संसाधनों और अवसरों की कमी में है।
मुझे सुप्रीम कोर्ट का वो फैसला याद है जिसके खिलाफ यूपीए -2 ने दोषी सांसदों से जुड़े उच्चतम न्यायलय के फैसले को अक्षम करने के लिए एक अध्यादेश पारित करने का फैसला किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अध्यादेश की वैधता जांचने के लिए तत्कालीन गृह मंत्री और कानून मंत्री को राष्ट्रपति भवन बुलाया था। यह राष्ट्रपति का विवेक ही था जिसने सत्तारूढ़ सरकार और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी का रबर-स्टैंप होने और बिना तार्किक सोच के अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया।
लेकिन शर्मिंदगी से बचने और अपने पार्टी द्वारा मनोनीत राष्ट्रपति से क्रेडिट चोरी करने के लिए, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन उपराष्ट्रपति राहुल गांधी ने एक प्रेस बैठक बुलाई और उक्त अध्यादेश के कागज़ को बड़े नाटकीय ढंग से मीडिया के सामने फाड़ दिया था, जिससे उनकी सरकार को एक बार फिरसे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था। हालाँकि इन सब नाटकों के बीच भी, संविधान की रक्षा की गई थी।
हाल ही में, ‘राजनीति के अपराधीकरण’ पर, सुप्रीम कोर्ट ने संसद सदस्यों पर इस विषय पर एक निर्णय लेने का फैसला छोड़ा था। फैसले में कहा गया, “धन और बाहुबल की शक्ति को संसदीय कार्यप्रणाली से दूर रखना, संसद का कर्तव्य है। संसद को इस बीमारी का इलाज करना होगा और इससे पहले की यह लोकतंत्र के लिए घातक हो जाए, इसका इलाज करना होगा।”(विडंबनात्मक)।
इस महीने की शुरुआत में, सुप्रीम कोर्ट ने भारत में समलैंगिकता से जुड़े कानूनी प्रावधान को अस्वीकार कर दिया- यानी कि भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 377 को असंवैधानिक करार दिया था। इस समस्या का सामना, समाज के केवल एक ख़ास वर्ग द्वारा किया जा रहा था लेकिन फिर भी उच्चतम न्यायलय ने उनकी भावनाओं को खास वरीयता दी। हालांकि, यह संसद सदस्यों के लिए कभी भी एक महत्वपूर्ण विषय नहीं था और इसको लेकर कभी भी गंभीरता से चर्चा नहीं की गई थी।
वर्ष 2013 में, मौजूदा गृह मंत्री एवं तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष, राजनाथ सिंह ने धारा 377 के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया था और कहा था कि यदि आवश्यक होगा, तो वह इस कानूनी प्रावधान के लिए समर्थन जुटाने हेतु एक अखिल-पक्षीय बैठक (all-party meeting) बुलाएंगे।
आप यह सोच सकते हैं कि आखिर क्यों इन राजनेताओं को ऐसे संवेदनशील मुद्दों की परवाह नहीं है जो समाज के एक तबके को प्रभावित करते हैं। दुर्भाग्य से, इस मुद्दे से कोई वोट बैंक फैक्टर (वीबीएफ) भी जुड़ा हुआ नहीं है। और हम जैसे आम लोगों के लिए, पढ़ने को केवल अख़बारों की सुर्खियां ही रह जाती हैं। संसद सदस्यों में क्षमता की कमी, वीबीएफ की अनुपस्थिति के कारण नहीं है, क्योंकि अगर यहां वीबीएफ मौजूद भी होता तो भी वे कुछ नहीं करते।
आरक्षण, देश में एक बेहद चर्चित सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट (फिरसे) ने समाज की क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर करने का फैसला किया, इस फैसले के चलते दोनों वंचित समुदायों (एससी और एसटी) के बीच मौजूद अभिजात वर्ग (elite) के लिए आरक्षण के प्रावधान को नकार दिया गया। अदालत ने पदोन्नति में आरक्षण के ऊपर प्रशासनिक दक्षता को वरीयता देने पर विचार करने के लिए कहा और इस मुद्दे को राज्यों पर, निर्णय के लिए छोड़ दिया। इसके बाद इस फैसले को विभिन्न राजनीतिक धड़ों द्वारा, अपने-अपने वीबीएफ के अनुसार, या तो सराहा गया या इसकी आलोचना की गई।
भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा (जिनका इम्पीचमेंट करने का प्रयास हाल ही में विपक्षी पार्टी द्वारा किया गया) ने अन्य न्यायाधीशों के साथ आधार, व्यभिचार (Adultery) और अयोध्या जैसे मुद्दों पर महत्वपूर्ण निर्णय दिए। इन 3 ‘ए’ (आधार, अडल्टरी और अयोध्या) ने समाज को काफी हद तक, कानूनी, नैतिक और धार्मिक रूप से प्रभावित किया। यह सोचने वाली बात है कि भारत में इन जैसी बुनियादी चीजों के लिए, व्यक्ति को न्याय की तलाश में अदालत जाना पड़ता है।
तो सवाल यह है कि- हमारी संसद और राज्य सभाएं क्या कर रही हैं? क्या वे सर्वसम्मति से कुछ नहीं कर सकते? बेशक वे कर सकते हैं- लेकिन वे समाज के लिए कम, बल्कि खुद के लिए अधिक करना चुनते हैं।
मार्च 2018 में, लोकसभा ने एक बिल पारित किया जो राजनीतिक दलों को वर्ष 1976 के बाद से विदेशों से प्राप्त धन की जांच से मुक्त कर देगा। इस महीने गुजरात विधानसभा ने अपने विधायकों के वेतन की वृद्धि के लिए सर्वसम्मति से एक बिल पारित किया था। तो ध्यान रहे, हमे अपने कानून निर्माताओं और उनकी एकता की योग्यता पर शक नहीं करना चाहिए।
लेकिन इस अवलोकन के साथ, मतदाताओं का विश्वास कम हो रहा है। मुझे लगता है कि यह वह समय है कि हम मतदाता बस बैठें और सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करें, कि सुप्रीम कोर्ट हमारे जीवन के साथ न्याय करे, जिसे सरकार द्वारा नुकसान पहुंचाए जा सकता है।
आखिर कब तक हम न्याय के लिए अदालतों को एकमात्र माध्यम के रूप में देखेंगे? कब तक हम कानून निर्माताओं के रूप में कानून तोड़ने वाले को चुनते रहेंगे? गैर-आपराधिक उम्मीदवारों को टिकट देने के लिए राजनीतिक दलों को आखिर कब कानूनी और नैतिक प्रवर्तन प्राप्त होगा? कार्यकारी और विधायी शाखाएं, प्रक्रियाओं को निष्पक्ष रखने के लिए और न्यायपालिका के लिए इसे आसान बनाने के लिए कार्य कब करेंगी?
ये वे प्रश्न हैं जिनके बीज लंबे समय पहले ही बोए गए थे और यह सवाल समय के साथ बड़े होते जा रहे हैं। लेकिन मेरा विश्वास करिये, इन सब की जड़ हम हैं- हम स्वयं इन सभी सवालों का जवाब हैं।
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