कभी-कभी सिर्फ एक हां पूरा जीवन बदल देती है..
आशिकी के लिए 23 गाने रिकॉर्ड किए थे
1983 से 1993 के दस सालों में 11 बार फिल्म फेअर नॉमिनेशेन
उत्सव,आशिकी, दिल है कि मानता नहीं, बेटा के लिए मिला अवॉर्ड
‘मेरे मन बाजा मृदंग’ , ‘नज़र के सामने जिगर के पास’, ‘दिल है कि मानता नहीं’ और ‘धक-धक करने लगा मोरा जियरा डरने लगा’ – ये वो गीत है जिनके लिए गायिका अनुराधा पौडवाल को फिल्म फेअर पुरस्कार मिले। रोचक बात है कि हर गीत हाल-ए-दिल बयां करता है। अनुराधाजी के ऐसे ही कई गीतों का जादू आज भी श्रोताओं के सर चढ़ कर बोलता है। नब्बे का दशक तो पूरी तरह से अनुराधामय था। हर फिल्म में उनका स्वर होना लाज़मी था। यह उनकी योग्यता का प्रमाण और सफलता का शिखरकाल था। बहुत कम लोग जानते हैं कि अनुराधा पौडवाल की संगीत यात्रा की शुरुआत एक बड़े संगीतकार के निर्देशन में छोटे से श्लोक को गाकर हुई थी। हमने उनसे चर्चा की तो कई दिलचस्प बातें सामने आई। –
अनुराधाजी आपकी शुरुआत कैसे हुई
मेरा असली नाम अलका नाडकर्णी है। संगीतकार अरुण पौडवाल से विवाह के बाद मैं अनुराधा पौडवाल हो गई। महान संगीतकार सचिन देव बर्मन जिन्हें हम सब एसडी बर्मन या बर्मन दादा के नाम से जानते हैं को मुझे हिंदी फिल्मों में लाने का श्रेय जाता है। दरअसल अरुण दादा को असिस्ट करते थे। बात 1972 के करीब की है। एक फिल्म बन रही थी जिसमें हीरोईन की एंट्री एक श्लोक गाते हुए होती है। दादा को एक नई आवाज़ की तलाश थी। अरुण ने मेरी आवाज़ दादा को सुनाई। उन्होंने मुझे बुलवा लिया।
वह कौन सी फिल्म थी
ह्रषीकेश मुखर्जी की ‘अभिमान’। साल 1973 में यह रिलीज़ हुई थी। अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी प्रमुख भूमिका में थे। जयाजी के गांव में जब अमितजी पहुंचते हैं तो वे एक आवाज़ सुनकर उसके पीछे-पीछे चले जाते हैं। यह आवाज़ मेरी ही थी।
महान एसडी बर्मन के साथ अनुभव कैसा था
मेरे लिए तो खज़ाना हाथ लग जाने जैसा था। जब मैं रिकॉर्डिंग करने पहुंची तो दादा ने लाइव सुना और खुश होते हुए बोले – क्यों ना श्लोक तुम्हीं से गवा लिया जाए। मुझे उनका यह सरल अंदाज़ बहुत अच्छा लगा। बर्मन दादा की एक हां ने मेरे ज़िंदगी बदल कर रख दी। आज पीछे पलट कर सोचती हूं तो लगता है शायद उस दिन दादा ने सकारात्मकता ना दिखाई होती तो शायद मैं आज यहां तक नहीं पहुंच पाती
वो कौन सी पंक्तियां थी जो आपने गाई
ऊं कारं बिंदु संयुक्तं नित्यं ध्यायंति योगिन:
कामदं मोक्षदं चैव ऊंकाराय नमो नम:
शिव स्तुति का यह श्लोक 20 सेकंड के लिए परदे पर गूंजता है।
यह तो पुरानी दौर की बात हुई लेकिन आज की पीढ़ी भी आपके गीतों को ख़ासकर आशिकी के गानों को सुनती है..इस फिल्म की तो सीरिज़ बनने लगी है
देखिए जब भी कोई काम मेहनत और लगन से किया जाता है तो उसका असर समय के साथ दोगुना हो जाता है। आशिकी के साथ भी ऐसा ही हुआ। फिल्म 1990 में रिलीज़ हुई थी। आपको जानकर आश्चर्य होगा हमने इसके लिए 23 गाने रिकॉर्ड किए थे। कभी सुना है आपने एक फिल्म के लिए इतने गाने हो सकते हैं।
लेकिन, फिल्म में तो 10 ही गीत सुनाई दिए
बिलकुल.. !! सही कह रही हैं आप । ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्म की अवधि ढाई घंटे थी। इसमें से एक घंटा तो 10 गानों के हिस्से आ गया। इससे ज्यादा गाने नहीं ले सकते थे। फिल्म का असली हीरो तो संगीत ही था। जो आज भी रिक्रिएट हो रहा है।
तो,फिर बचे गीतों का क्या हुआ
हमने उनका उपयोग फिल्म- दिल है कि मानता नहीं में किया। आशिकी की ही तरह इसके भी गीत सुपर-डुपर हिट हुए। मुझे दोनों फिल्मों के लिए फिल्म फेअर अवॉर्ड मिले।
तेज़ाब, रामलखन, दिल ,बेटा,साजन..सफल फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है आपकी
आज पीछे मुड़ कर देखती हूं तो अपनी संगीत यात्रा पर खुशी होती है। लगता है कि, मैं भाग्यशाली थी। समय भी अंगुली थामे चल रहा था जो अच्छे गाने और संगीतकार मिले। आप देखिए यही कारण है कि 90 के दौर की मेलडी आज भी असरकारी है। शायद इसलिए क्योंकि यह संगीत एकदम पुराना नहीं और अपील लिए हुए है।
आप मेलडी की बात कह रही है जबकि अब संगीत पर तकनीक हावी हो रही है
यह एक गंभीर मसला है। टेक्नॉलॉजी का उपयोग बुरी बात नहीं,लेकिन उस पर निर्भर हो जाना संगीत को नुकसान पहुंचाता है। हम लाइव रिकॉर्डिंग विद लाइव ऑर्केस्ट्रा वर्क करते थे। इसका असर गीत-संगीत में महसूस होता था। आज तो स्टेज पर सिंगर माइम (सिर्फ मुंह चलाने का अभिनय) करते हैं। लोगों को लगता है बंदा गाना गा रहा है,लेकिन असलियत कुछ ओर ही होती है। आर्केस्ट्रा में भी माइनस वन ट्रेक प्ले कर दिया जाता है।
क्या बुरा लगता है सब देख कर
मैं किसी पर टिप्पणी नहीं कर रही हूं। परंतु ऐसा नहीं होना चाहिए।
मुझे इस बात का सुकून है कि मैने गाना कम करने का निर्णय सही समय पर ले लिया था।
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