केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सोमवार को नौकरियों और शिक्षा में सामान्य वर्ग की जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10% आरक्षण की अनुमति देने के संशोधनों को मंजूरी दे दी। अज्ञात अधिकारियों ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, इस प्रयोजन के लिए, कोई आर्थिक रूप से कमजोर की श्रेणी में तभी आएगा यदि उसकी प्रति वर्ष कुल आय 8 लाख रुपये या उससे कम है, अगर वे केवल पांच एकड़ या उससे कम जमीन के मालिक हैं, यदि उनका आवासीय घर 1,000 वर्ग फुट से छोटा है और वह घर एक अधिसूचित नगरपालिका क्षेत्र में 109 वर्ग गज के एक भूखंड में या गैर-अधिसूचित नगरपालिका में 209 वर्ग गज में स्थित है।
चुनाव के आस पास के समय में भले हर दांव फीका पड़ जाता हो पर एक दांव ऐसा भी है जो कभी असफल नहीं होता। वह दांव और कुछ नहीं, वादों का व्यापार भर है। इस व्यापार में निवेश कुछ नहीं होता, और इसका प्रतिफल आपको सत्ता की चाभी तक दिला सकता है। वादे पूरे हों अथवा नहीं, सत्ता पांच साल किसी पार्टी अथवा पार्टी से भी बड़े हो चुके किसी नेता के हाथों में आ अवश्य जाती है।

और जैसा अक्सर ही पूर्व वित्त मंत्री, पी। चिंदम्बरम कहते हैं, जनतंत्र में जनता की याददाश्त बेहद कमजोर होती है। 5 साल बीत जाने के बाद, उन्ही पुराने वादों को नए कपड़ों में चुनावी मेले में फिरसे पेश किया जाता है और फिर से उन्ही वायदों की नीलामी होती है। यह नीलामी इस उम्मीद में होती है कि शायद इस बार वादों की खरीदारी, जनता के लिए फायदेमंद होगी।

आरक्षण भी वही पुराना, दशकों पुराना वादा है जो अब नए कलेवर में हमारे सामने आने वाला है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मोदी सरकार चुनाव से ठीक पहले जनरल केटेगरी के लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रपोजल लेकर सामने आ गयी है। सूत्रों का कहना है कि यह 10 प्रतिशत आरक्षण, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए पहले से मौजूद कुल 50 प्रतिशत के आरक्षण कैप के अलावा होगा, यानी अब आरक्षण का कुल प्रतिशत 60 होगा। खबर है कि, 10% आरक्षण उन सभी समुदायों/वर्गों के लिए है जो 50% कोटा के अंतर्गत नहीं आते हैं। यह सभी समुदायों के लिए होगा, यानी हिंदुओं, मुस्लिम, ईसाइयों आदि के बीच आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिया यह उपलब्ध होगा।

अभी तक सब अच्छा-अच्छा लग रहा है सुनकर। पेड ट्रोल्स को तो छोड़ दीजिये, भाजपा और मोदी समर्थक कल से फेसबुक, ट्विटर और सोशल मीडिया तंत्रों को धुआं धुआं किये हुए हैं। हर जगह तारीफ ही तारीफ और हाँ, इस दांव को भी मोदी का मास्टरस्ट्रोक कहा जा रहा है। और हो भी क्यों न, आखिर क्यों आर्थिक रूप से पिछड़े और किसी प्रकार के आर्कषण का लाभ न उठा पाने वाले वर्ग को यह सौगात दी जाये, इसमें बुराई भी क्या है।
निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो यह एक बेहतरीन कदम है। हमारे स्कूल और कॉलेज के दिनों में जब आरक्षण के नाम पर डिबेट करने को कहा जाता था तो ज्यादातर छात्र/छात्राएं, आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण देने की बात किया करते थे। हम सभी उससे सहमत भी हुआ करते थे।
दिक्कत, जो आपको समझनी चाहिए
तो अब इसमें क्या दिक्कत क्या है? दिक्कत कुछ ज्यादा नहीं है। जरुरत है तो बस सरकार के इरादों, वादों और ख्यालों की गौर से पड़ताल करने की है। और हाँ, इस कदम की व्यवहारिकता (practicality) का विश्लेषण करने की भी जरुरत है। आइये, बहुत संक्षेप में आपको बताते हैं सरकार के इस कदम का दूसरा पहलू।
वर्ष 1992 के इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने विशेष रूप से इस सवाल का जवाब दिया था कि,
क्या केवल आर्थिक मानदंडों (economic measures) के संदर्भ में पिछड़े वर्गों (backward class) की पहचान की जा सकती है।
इस फैसले में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि “एक पिछड़े वर्ग को केवल और विशेष रूप से आर्थिक मानदंड के संदर्भ में निर्धारित नहीं किया जा सकता है।”

फैसले में आगे कहा गया था कि,
यह (आर्थिक मानदंड) एक विचार या आधार हो सकता है (सामाजिक पिछड़ापन के साथ), लेकिन यह कभी भी एकमात्र मानदंड नहीं हो सकता है। यह इस अदालत द्वारा समान रूप से लिया गया विचार है।
सीधा सा मतलब यह था कि आरक्षण देने के लिए, केवल इकनोमिक बैकवर्डनेस, आधार नहीं हो सकता है।
इंदिरा साहनी के फैसले ने 50% कोटा को नियम के रूप में घोषित किया था जब तक कि असाधारण परिस्थितियां उत्पन्न नहीं हो जाती (जो “इस देश और लोगों की महान विविधता में निहित” हों)। फैसले में साफ़ कहा गया था कि अगर फिर भी आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर, आरक्षण दिया जाना है तो अत्यधिक सावधानी बरती जानी है और इसे एक विशेष मामले के तौर पर देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि गुजरात सरकार के ऐसे ही एक प्रयास को सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में असंवैधानिक करार दे दिया था।
अब चूँकि इंदिरा साहनी के फैसले के चलते 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता, तो सरकार अपने इस वादे की पूर्ती के लिए संविधान का संशोधन करने वाला रास्ता पकड़ेगी। क्यूंकि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पलटना तो सरकारों के खून में रहा है। सरकार, पार्लियामेंट में संविधान संशोधन बिल ला सकती है। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन की आवश्यकता होगी।

संविधान का अनुच्छेद 15, राज्य को केवल “सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए” विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है। अनुच्छेद 16, राज्य को प्रतिनिधित्व में सुधार के लिए सार्वजनिक रोजगार में पिछड़े वर्गों के लिए ऐसे प्रावधान करने की अनुमति देता है।
दी हिन्दू के कोरेस्पोंडेंट कृष्णदास राजगोपाल का यह मत है कि,
यदि सरकार “अनारक्षित आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों” के लिए 10% कोटा शामिल करने के लिए एक संवैधानिक संशोधन लाने का प्रस्ताव करती है, तो 11-न्यायाधीशों द्वारा सुनाया गया केशवानंद भारती का निर्णय उनके रास्ते में खड़ा हो सकता है। इस निर्णय में कहा गया कि संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करने वाले संवैधानिक संशोधन, ‘अल्ट्रा वायर्स’ (अर्थात, संविधान के खिलाफ) होंगे।
यह हम सब जानते हैं कि न तो संसद और न ही विधानसभाएं, संविधान की मूल विशेषता, अर्थात् अनुच्छेद 14 में समानता के सिद्धांत को भंग कर सकती हैं।

सरकार (या कहें की सरकार के केंद्र में मौजूद लोग) की मंशा
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब भारत के तीन प्रमुख राज्यों में भाजपा की हार हुई और कांग्रेस की जीत। चुनाव से पहले और सरकार द्वारा SC-ST एक्ट में संशोधन के वजूद में लाने के बाद से ही लगातार कथति रूप से उच्च जाती के लोगों द्वारा सरकार के इस फैसले का विरोध किया जा रहा था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलते हुए सरकार 2018 की शुरआत में SC-ST एक्ट में संशोधन लेकर आयी थी।

इसके तहत, इस एक्ट के अंतर्गत मामले में केस दर्ज होते ही गिरफ्तारी का प्रावधान है। इसके अलावा आरोपी को अग्रिम जमानत भी नहीं मिल सकती। आरोपी को हाईकोर्ट से ही नियमित जमानत मिलती। इस एक्ट के अंतर्गत जातिसूचक शब्दों के इस्तेमाल संबंधी शिकायत पर तुरंत मामला दर्ज होगा। एससी/एसटी मामलों की सुनवाई सिर्फ स्पेशल कोर्ट में होगी। सरकारी कर्मचारी के खिलाफ अदालत में चार्जशीट दायर करने से पहले जांच एजेंसी को अथॉरिटी से इजाजत नहीं लेनी होगी।

इन सभी के बाद, इस एक्ट से क्षुब्ध लोगों ने (स्वाभाविक रूप से उच्च जाती के लोग) भाजपा के खिलाफ नोटा (EVM पर मौजूद एक बटन, जो उस दशा में दबाया जाता है जब आप चुनाव में अपने इलाके के किसी भी उम्मीदवार को नहीं चुनना चाहते हैं) दबाने के अभियान को सोशल मीडिया पर चलाया।

राज्यों के परिणाम से पता चलता है कि यह अभियान कितना सफल हुआ। जहाँ मध्य प्रदेश में कुल नोटा वोट 5,42,295 रहे (कुल मतों का 1.5 प्रतिशत), वहीँ राजस्थान में यह 1.3 प्रतिशत रहा। छत्तीसगढ़ में यह 2.0 प्रतिशत रहा। 5 राज्यों में कुल 15 लाख लोगों ने नोटा का बटन दबाया। कई सारी विधानसभाओं में तो नोटा मत, जीत के अंतर से भी अधिक था। हालाँकि हम SC-ST एक्ट में संशोधन का विरोध करने वाले लोगों द्वारा नोटा विकल्प चुनने की पुष्टि नहीं करते हैं।

पर यह जरूर तय है कि एक वर्ग है जो SC-ST एक्ट में संशोधन से नाराज हुआ था, इस वर्ग को चुनाव में साधने के लिए मोदी सरकार ने यह निर्णय लिया है। बात जब चुनावों की हो रही है तो आइये एक नजर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, अमित शाह के चुनावी कैंपेनिंग पर भी डालते हैं।
25 नवम्बर 2018 को वो तेलंगाना के परकाल, निर्मल, नारायणखेड़ एवं दुब्बक में रैलियों को सम्बोधित कर रहे थे, वहां उन्होंने तत्कालीन एवं मौजूदा मुख्यमंत्री, केसीआर द्वारा मुस्लिमों को आरक्षण देने के एलान का विरोध किया था। टीआरएस सरकार के इस कदम को असंवैधानिक करार देते हुए भाजपा प्रमुख ने कहा था कि केसीआर का यह एलान, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कुल आरक्षण कोटा पर 50 प्रतिशत की सीमा के खिलाफ है।

क्या अब मोदी सरकार स्वयं गैर-संवैधानिक कार्य को अंजाम देने जा रही है? यह सवाल पूछा जाना चाहिए। 50 प्रतिशत के ऊपर आरक्षण की बात करना मौजूदा फ्रेमवर्क में फिट नहीं होता। संविधान में संशोधन का रास्ता, जैसा की मैंने पहले भी कहा है, मुश्किलों से भरा है। सरकार के इस कदम से उच्च-जाति के मतों को अपने पक्ष में किये जाने का प्रयास हुआ है। हालाँकि, ओबीसी सूची में शामिल होने की मांग करने वाले कई समुदायों को भी इस कदम से लक्षित किये जाने का प्रयास हुआ है।

अब देखते हैं कि सरकार इस मंशा को कानूनी रूप दे पाती है या नहीं (वैसे यह मौजूदा स्थितियों में बेहद पेचीदा लगता है)। ऐसे समय में जब सरकारी नौकरियां लगातार घटती जा रही हैं, और लोगों का रुझान प्राइवेट नौकरियों की तरफ मज़बूरी स्वरुप बढ़ रहा है, तब मोदी सरकार का यह कदम सिम्बॉलिस्म (प्रतीकवाद) के सिवा और कुछ नहीं लगता है।

आखिर क्यों प्राइवेट (निजी) क्षेत्र में आरक्षण लागू नहीं किया जा सकता? इस क्षेत्र में आरक्षण की वकालत, भाजपा के सहयोगी दल के नेता और बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार कर चुके हैं। दूसरे शब्दों में, अगर आरक्षण का अनुपालन करने के अवसर ही नहीं रहेंगे (सरकारी नौकरियों की कमी) तो असलियत में उस आरक्षण का कोई मतलब नहीं। और जहाँ अवसर हैं, वहां ये लागू नहीं। लेकिन ऐसे दौर में, जब हम अपने तर्कों पर पट्टी बांधें घूम रहे हैं, क्या हमे यह समझ आएगा?
सरकार के इस कदम की तारीफ होनी चाहिए, लेकिन सरकार की मंशा और मौजूदा कानूनी फ्रेमवर्क को समझना और भी ज्यादा जरुरी है। उम्मीद है आप सभी यह प्रयास करेंगे, मैंने अपनी तरफ से इस प्रयास की शुरुआत कर दी है। अब बारी आपकी है। जय हिन्द-जय भारत।
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