कोई भी आजादी अंतिम नहीं होती, हर आजादी, किसी और कैद से हमारा और आपका परिचय करवाती है। भारत, एक ऐसा देश है जिसमे संविधान हमे बोलने अर्थात वक्तव्य की आजादी तो देता है (कुछ बंदिशों के साथ), लेकिन बोलने हेतु (सामाजिक) सशक्तिकरण सुनिश्चित नहीं करता। और फिर केवल अधिकार की मौजूदगी काफी नहीं होती, बल्कि यह भी जरुरी होता है कि आप अपने इस अधिकार का उपयोग अपने खिलाफ हो रहे अन्याय के लिए भी कर सकें। और ‘मी टू’ (या #MeToo) नामक मुहीम आपको ऐसा करने का मौका देती है।
जब बात अन्याय से लड़ने की हो, तो या तो हमे हमारी न्यायपालिका की याद आती है या कार्यपालिका की या कुछ हद तक विधयिका की। किसी अन्याय के खिलाफ लड़ने में कई बार मीडिया भी हमारा साथ देता है। लेकिन सबसे जरुरी लड़ाई, व्यक्ति स्वयं, अपने स्तर से लड़ता है। ‘मी टू’ (या #MeToo) उसी लड़ाई का नाम है, जो अब एक मुहिम का रूप ले चुकी है।
भले ही यह लड़ाई एक मुहिम के तौर पर हमारे सामने खड़ी हो, पर यह जानना हमारे लिए बहुत जरुरी है कि यह लड़ाई पूर्ण रूप से व्यक्तिगत स्तर पर लड़ी जा रही है। अगर आप सोशल मीडिया पर थोड़ा बहुत भी सक्रीय हैं तो आप ने #MeToo नामक इस मुहिम का नाम अवश्य सुना होगा। हाल के समय में इतनी शक्तिशाली मुहिम शायद ही कोई हुई हो। यह मुहिम और कुछ नहीं, बस हमारी अन्याय के खिलाफ उठने वाली आवाज़ को और मजबूत करने का जरिया है। हालाँकि यह सवाल अवश्य उठ सकता है की व्यक्तिगत स्तर पर किये गए कृत्य, आखिर क्यों समाज में पीड़ितों द्वारा खुले आम उठाये जा रहे हैं?
इस बात का जवाब देते हुए पत्रकार, सलिल त्रिपाठी लिखते हैं
“यूनाइटेड किंगडम में ‘रेनॉल्ड्स टेस्ट’ और अमेरिका में ‘दी न्यूयॉर्क टाइम्स बनाम सुलिवान’ में ऐसा माना गया है कि, सार्वजनिक हित में किया गया खुलासा (जब वह किसी पब्लिक फिगर/सार्वजानिक व्यक्तित्व से सम्बंधित हो), भले ही पूरी तरह से सटीक न हो, लेकिन अगर वह गुड फेथ में किया गया हो तो वह संरक्षित भाषण (protected speech) के अंतर्गत आता है। चाहे बंद दरवाजे के भीतर या किसी सार्वजनिक स्थान पर, कैसे एक संपादक, राजनेता, या एक अभिनेता किसी के साथ व्यवहार करता है, विशेष रूप से उन लोगों के साथ जो उनके अधीनस्थ कार्यरत हैं और उस व्यवहार के प्रति अनिच्छुक हैं, सार्वजनिक हितों का विषय है।”
एक अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता और सामुदायिक आयोजक, ताराना बर्क ने वर्ष 2006 के आरंभ में ‘मी टू’ (या Me Too) वाक्यांश का उपयोग शुरू किया, और इस वाक्यांश को बाद में वर्ष 2017 में ट्विटर पर अमेरिकी अभिनेत्री एलिसा मिलानो द्वारा लोकप्रिय किया गया। आम भाषा में अगर इसको समझा जाए तो यह मुहिम, यौन उत्पीड़न और यौन हमले के खिलाफ एक सकारात्मक एवं धैर्ययुक्त आंदोलन है।
हमारे समाज में जहाँ औरतों को अक्सर ही यौन उत्पीड़न के किसी न किसी प्रकार से गुजरना होता है, वहां ऐसी मुहिम सशक्तिकरण की एक मिसाल बनकर उभर रही है। #Metoo मुहिम, भारत में एक आंदोलन को गति देती हुई प्रतीत होता है, जहाँ फिल्म, मीडिया, राजनीती, और कॉमेडी उद्योग क्षेत्र (यहीं तक सीमित नहीं) में कार्यशील महिलाएं उसी समुदाय के कुछ शक्तिशाली व्यक्तित्वों के खिलाफ आवाज़ें उठा रही हैं, जिनके हाथों उन्हें अश्लील टिप्पणियों, अवांछित स्पर्श, सेक्स की मांग और अन्य अभद्र हरकतों का सामना करना पड़ा है।
जैसा की ऊपर मैंने बताया कि विदेश में यह मुहिम वर्ष 2017 में किये गए मिलानो (अमेरिकी अभिनेत्री एलिसा मिलानो) के एक ट्वीट से शुरू हुई, अब यह भारत में एक आम चर्चा हो चुकी है। मिलानो ने यौन उत्पीड़न के पीड़ितों को इसके बारे में ट्वीट करने के लिए प्रोत्साहित किया और लोगों को इस समस्या की गंभीरता से रुबरू करवाया। यह मुहिम को सफलता तब मिली जब कई अमेरिकी हस्तियों ने उच्च प्रोफ़ाइल पदों पर काबिज लोगों के साथ खुदके अनुभव साझा करने शुरू किये।
भारत में यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब बॉलीवुड अभिनेत्री, तनुश्री दत्ता ने वर्ष 2008 में एक फिल्म के सेट पर उन्हें परेशान करने के लिए प्रसिद्ध अभिनेता नाना पाटेकर पर आरोप लगाया। तनुश्री ने हाल ही में इस घटना के बारे में 10 साल बाद मीडिया से बात की और जल्द ही यह मुहिम, जंगल में आग की तरह फैल गयी।
इसकी लपटें कितनी ज्वलनशील थी, इस बात का अंदाज़ा कुछ यूँ लगाया जा सकता है – कम से कम एक दर्जन महिला पत्रकारों ने (विशेष रूप से उनके साथ काम कर चुकी प्रिया रमानी ने) 67 वर्षीय एम. जे. अकबर (द टेलीग्राफ, डेक्कन क्रॉनिकल और द एशियाई एज अखबारों के पूर्व संपादक और अभी तक केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री) पर अनुचित व्यवहार के आरोप लगाए थे, और इसी के चलते उन्हें 17 अक्टूबर को केंद्रीय मंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा (सभी आरोपों को ख़ारिज करते हुए और प्रिया रमानी पर मानहानि का मुकदमा ठोंकने के फैसले के साथ)।
नामी मीडिया हाउसेस के नामी पत्रकारों जैसे बिज़नेस स्टैण्डर्ड के मयंक जैन, आर. श्रीनिवास (रेजिडेंट एडिटर, दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया हैदराबाद), गौतम अधिकारी (पूर्व एडिटर-इन-चीफ, डीएनए बॉम्बे) के नाम भी यौन उत्पीड़क के तौर पर हमारे सामने आये हैं। इसके अलावा अन्य नाम जो चर्चा में आये हैं वो हैं, प्रसिद्ध संगीतकार, अनु मालिक, फिल्म ‘रानी’ के निर्देशक, विकास बहल, अभिनेता रजत कपूर और अलोक नाथ, लेखक चेतन भगत, हफ़िंगटन पोस्ट के पूर्व संपादक, अनुराग वर्मा, पत्रकार किरण नगरकर और सीपी सुरेंद्रन, फोटोग्राफर पाब्लो बार्थोलोम्यू इत्यादि।
यह देखना बहुत ख़ुशी देता है कि किस प्रकार से हमारे समाज में महिलाएं, यौन उत्पीड़कों के खिलाफ एकजुट और मजबूत होकर खड़ी हैं और अपनी आवाज़ उठा रही हैं। यही ‘मी टू’ और इसके जैसे अन्य मुहिमों का मकसद होता है। हालाँकि, चायपानी इन आरोपों की किसी भी प्रकार से पुष्टि नहीं करता है या किसी व्यक्ति-विशेष को दोषी सिद्ध नहीं करता है। हमारा एकमात्र मकसद, इन महिलाओं की बुलंद होती आवाज़ों का जश्न मानना है, जिससे समाज में और महिलाओं को अपने खिलाफ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने में मदद मिलेगी।
जब बात घरों में महिलाओं पर हो रही हिंसा की हो तो कानून बहुत सख्ती से ऐसे मामलों को देखता है। लेकिन जब बात मानसिक रूप से की जाने वाली हिंसा की हो तो उसके लिए कानून निहत्था मालूम पड़ता है। ‘मी टू’, कानून के उसी निहत्थे पन को दूर करता हुआ दिखता है। पर कैसे?
यह जरुरी है की इस मुहिम को समाज के हर उस हिस्से तक ले जाया जाए, जहाँ महिलाएं किसी न किसी प्रकार के यौन उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं। भले ही ‘मी टू’ किसी ठोस समाधान (कानूनी) को पेश नहीं करता लेकिन यह महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ने, उत्पीड़न के खिलाफ बोलने, अन्याय को नकारने और अपनी आवाज़ को अपनी ताकत समझने में मदद कर रहा है।
अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते हुए जब महिलाएं, ऐसे मामलों के खिलाफ कानूनी हल तलाशने के प्रति प्रयासरत होंगी तो एक बदलाव की उम्मीद अवश्य की जा सकती है। इस मुहिम के जरिये उत्पीड़कों को यह भी एहसास होगा कि वो अब अन्याय या उत्पीड़न नहीं कर सकते क्यूंकि महिलाएं अब चुप नहीं बैठने वाली हैं।
चायपानी यह भी समझता है कि यह समस्या (यौन उत्पीड़न) केवल कुछ ही समाज तक सीमित नहीं है। बल्कि यह हमारे आसपास, हमारे घरों और हमारे कार्यालयों में भी उतनी ही प्रबलता से व्याप्त है। इस मुहिम के जरिये दोषियों को अगर सजा मिले तो उससे हमारा समाज एक सुधार कि दिशा में कदम रख सकगा, इसके अलावा इस पूरी मुहिम में किसी भी निर्दोष को प्रताड़ित करना ठीक नहीं और हम अपनी पूरी टीम की तरफ से ऐसी किसी भी घटना का पुरजोर विरोध करते हैं।
और अंत में, हमे एक समाज के रूप में समझना होगा कि महिलाएं (पुरुषों के समान ही), उपभोग/यपयोग योग्य वस्तुएं नहीं हैं, अपितु वे भी इंसान हैं, जिनपर क्रूरता या हैवानियत का बुरा असर पड़ता है। हमे सभी इंसानों के मानवाधिकार, संवैधानिक अधिकार और वैचारिक मतभेदों को स्वीकार करते हुए बराबरी का हक हासिल करने की इस परस्पर लडाई को खत्म करते हुए समाज में समानता फ़ैलाने के लिए प्रयास करने चाहिए।
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