ट्रांसजेंडर (Transgender) समुदाय के लोगों को हमारे देश में उत्पीड़न के कई प्रकार का सामना करना पड़ता है। उनमें से कई अपने यौन अभिविन्यास या लिंग पहचान के कारण हिंसा और भेदभाव का अनुभव करते हैं। वर्ष 2014 तक इस समुदाय के लोगों को भारत में एक विशिष्ट पहचान हासिल करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। पर वर्ष 2014 के बाद हालात बदल गए। इसी वर्ष उच्चतम न्यायलय ने ट्रांसजेंडर्स को संविधान के दायरे में उनकी पहचान दिलाने में भूमिका निभाई। भले ही नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (NLSA) बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया मामले के दूरगामी प्रभाव हों, जो निर्णय मुख्य रूप से भारतीय संविधान में समानता के अधिकार के भीतर ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों को जगह देता है, लेकिन समाज में व्याप्त ट्रांसजेंडर के प्रति असामान्य व्यवहार एक बड़ी समस्या आज भी है।
लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है कि तमाम सामजिक संगठन, विभिन्न मुहिमों के माध्यम से ट्रांसजेंडरों के प्रति हमारे डर, बुरे बर्ताव और पूर्वाग्रहों को समाप्त करने की कोशिश में लगे हुए हैं। और इस कार्य में सफलता धीरे धीरे मिलने भी लगी है। इसी कड़ी में हाल में आयी एक सकारात्मक मुहिम ने काफी सुर्खियां बटोरी। लेकिन इस मुहिम पर बात करने से पहले चलिए राजेश नाम के एक शख्स से आपका परिचय करवाते हैं।
राजेश, जो समाज के लिए शारीरिक बनावट के चलते एक लड़का/पुरुष (या मर्द) थे, लेकिन उनका व्यवहार एक पुरुष होने के नाते असामान्य समझा जाता था। उनके बर्ताव में स्त्रीत्व की झलक मिलती थी। यह बात समझने में उन्हें थोड़ा वक़्त जरूर लगा, लेकिन अंततः उन्होंने खुदको एक ट्रांसजेंडर के रूप में पहचान दे ही दी। लेकिन इस पहचान को स्थापित करने से पहले उन्हें अपने स्कूल में बच्चों से प्रताड़ना झेलनी पड़ी। उनके स्कूल के बच्चे उनपर भद्दी टिप्पणियां करते थे, उन्हें छेड़ते थे और उन्हें बुली करते थे। वजह? बस इतनी कि वो एक लड़की/स्त्री (या औरत) की तरह बर्ताव करते थे।
ऐसी ही कुछ कहानी, रीना और लवली की भी है जो अब एनजीओ स्पेस (NGO SPACE) के साथ काम करते हैं। ये वो लोग हैं जिन्हे समाज ने गलत नजरों से देखा और उन्हें मानसिक प्रताड़ना से गुजरने पर मजबूर होना पड़ा। दरअसल समाज ने उन्हें उस नजर से नहीं देखा जिस नजर से वे स्वयं हमे दिखना चाहते थे, बल्कि उस नजर से देखा जिस नजर से स्वयं समाज उन्हें देखना चाहता था। इस समुदाय के लोगों को दुर्व्यवहार का सामना सिर्फ पब्लिक प्लेसेस में ही नहीं करना पड़ता बल्कि स्कूलों में भी उन्हें इसका शिकार होना पड़ता है। अगर हम गौर करें तो स्कूलों में ऐसे बच्चों को विशेषतौर पर दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। निकिता इसी समस्या से निपटने के लिए ‘सोसाइटी फॉर पीपल्स अवेयरनेस केयर एंड एम्पावरमेंट’ (स्पेस) एनजीओ के अंतर्गत पर्पल प्रोजेक्ट मुहिम का नेतृत्व कर रही हैं।
इस प्रोजेक्ट का पहला चरण, नेतृत्व की स्थिति में मौजूद लोगों को लक्षित करके उनके बीच जागरूकता पैदा करेगा, यह स्कूल के प्रधानाध्यापकों के बीच जागरूकता पैदा करते हुए और उन्हें ट्रांसजेंडर और समलैंगिकों सहित लिंग पहचान, और अनुच्छेद 377 जैसे मुद्दों के बारे में समझायेगा। हाल ही में दिल्ली के एक स्कूल के प्रिंसिपल को अपने स्कूल प्रांगड़ में एक शौचालय को यूनिसेक्स के रूप में नामित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। इसके अलावा उन्हें अपने स्कूल में एंटी ट्रांस बुलीइंग नियम का निर्माण करने और अपने संस्थानों में बहु-लिंग गतिविधियों को व्यवस्थित करने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया। ऐसा दिल्ली के तमाम स्कूलों में करने का प्रयत्न किया जा रहा है।
इस प्रोजेक्ट के अगले चरण में, स्कूल के नोडल शिक्षकों और उसके बाद प्रोजेक्ट में शामिल स्कूलों के माध्यमिक छात्रों के लिए संवेदनशीलता कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा। इसके बाद, एक स्कूल जो “ट्रांस फ्रेंडली” होने के लिए तैयार है उसे एक पुरस्कार भी दिया जाएगा। यह पूरा प्रोजेक्ट ‘स्पेस’ के अंतर्गत है और उन्हें शिक्षा निदेशालय और नीदरलैंड के दूतावास द्वारा समर्थन और सहयोग भी प्राप्त हो रहा है।
निकिता बताती हैं कि कैसे जब वो स्कूल में थी तो उनके शिक्षक और प्रिंसिपल के उनके प्रति बर्ताव ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर किया कि वह कौन हैं, वो इस प्रोजेक्ट के सिलसिले में जब सरकारी स्कूलों के प्रधानाचार्यों को संबोधित करती हैं तो स्कूल के दौरान हुए अपने साथ हुए बुरे अनुभवों को भी साझा करती हैं।
इस प्रोजेक्ट की जितनी तारीफ की जाए, कम है क्यूंकि आज के दौर में जहाँ लोग अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक हुए हैं, वहीँ तमाम प्रकार के दुर्व्यवहार के मामले भी बढे हैं। चूँकि बच्चों का मन कोमल होता है और आम नागरिक की तरह उन्हें भी हक़ है कि वो अपनी पहचान, एक स्त्री, पुरुष अथवा ट्रांसजेंडर के रूप में करें इसलिए यह प्रयास किये जाने चाहिए कि हम बच्चों के किसी भी व्यवहार को असामान्य न समझें और ऐसे बच्चों को पूरी तरह से सहारा दें और उनके निर्णयों का समर्थन करते हुए उन्हें सम्मान दें। और इस प्रकार बदलाव की सीढ़ी पर चढ़ते हुए हम एक सुरक्षित, भयविहीन और सौहार्दयपूर्ण समाज का निर्माण करने में अवश्य सफल होंगे।
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