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हाँ, मौजूदा दौर महिलाओं के लिए है सबसे प्रगतिवादी सोच का परिचायक: आखिर कैसे बदल रहा है हमारा समाज और समय?

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उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन v. दी स्टेट ऑफ़ केरला एंड अदर्स (सबरीमाला विवाद) में महिलाओं को सबरीमाला में प्रवेश देने का निर्णय सुनाते हुए कहा, हम किसी महिला को किसी निम्न भगवान के बच्चे के रूप में नहीं देख सकते (Women no children of a lesser God)। यह बात न सिर्फ सबरीमला विवाद के सन्दर्भ में उपयुक्त है, बल्कि हर उस परिस्थिति में ठीक बैठती है जहाँ हमारा समाज महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करने का प्रयास करता है।

हमारे समाज में जब भी महिलाओं के अधिकार की बात आती है, हमे अक्सर संविधान की एक प्रति थमा दी जाती है और कहा जाता है कि देश में महिलाओं को पुरुषों के सामान अधिकार मुक्कमल हैं। लेकिन जब हम अपने आस पास के समाज में महिलाओं के खिलाफ हो रही घटनाएं देखने को मिलती हैं तो संविधान की बेचारगी का एहसास भी होता है।

वास्तव में, भले ही हमारा संविधान हमे कितने ही मजबूत अधिकार क्यों न थमा दे, अगर वो अधिकार सामाजिक जीवन में सहजता से उपलब्ध नहीं तो उसकी उपयोगिता पर सवाल उठने लाजमी हैं। उदहारण के लिए, सबरीमाला विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद, महिलाओं को केरल के इस मंदिर में प्रवेश पाने के लिए संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है।

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Sabrimala Temple, Kerala

इस लेख में हम हाल के उन विवादों या मामलों पर बात करेंगे जहाँ हमारा समाज महिलाओं को उनके हक़ देने की दिशा में आगे बढ़ा रहा है।

भारतीय दंड संहिता का सेक्शन 497, असंवैधानिक घोषित
जोसफ शाइन v. यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में उच्चतम न्यायलय द्वारा फैसला सुनाते हुए कहा गया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 497, असंवैधानिक है। अब तक इस धारा के अन्तर्गत, एक विवाहित व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने के लिए दंडित किया जाता था। हालांकि, यदि विवाहित महिला के साथ यौन कृत्य/सम्बन्ध, महिला के पति की सहमति से बनाये जाते हैं तो उस यौन कृत्य को सजा से मुक्त किया जाता था। इसके अलावा, यह प्रावधान पत्नी को किसी भी प्रकार के दंड से छूट देता है, और कहता है कि पत्नी को दुष्प्रेरक (abettor) के रूप में भी नहीं माना जाना चाहिए।

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भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अनुसार (अनिवार्य रूप से, न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर की ओर से लिखते हुए)

धारा 497 एक विवाहित महिला को अपने पति की संपत्ति से ज्यादा कुछ नहीं समझता है।

वास्तव में, महिलाओं की व्यक्तिगत गरिमा और समानता को प्रभावित करने वाले कानून को संविधान के दायरे में रखकर नहीं पढ़ा जा सकता है। इस निर्णय में यह साफ़ तौर पर कहा गया है कि पति, पत्नी का मालिक नहीं हो सकता है (जैसा की धारा 497 समझता है)। किसी एक लिंग (पुरुष) की किसी दूसरे लिंग (महिला) पर कानूनी सम्प्रभुता, संवैधानिक एवं कानूनी रूप से गलत है।

इस निर्णय के जरिये महिला की यौन स्वायत्तता (sexual autonomy) को भी पहचान मिली है। स्वयं न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ (इस मामले की सुनवाई में शामिल, जिन्होंने इस मामले में अलग लेकिन समवर्ती निर्णय लिखा) के शब्दों में,

यौन स्वायत्तता (sexual autonomy) के प्रति सम्मान पर जोर दिया जाना चाहिए। स्वायत्तता (autonomy), मानव अस्तित्व का एक अभिन्न अंग है। व्यभिचार का कानून, पितृसत्ता को कानूनी मान्यता देता है, जोकि गलत है।

जिस समाज में महिलाओं को पति के अधीन समझा जाता है उस समाज में ऐसे निर्णय उम्मीद की अलख जलाते हुए दिखते हैं। धारा 497 अपने आप में समाज की आम सोच का आइना है, जिसे धराशायी करते हुए उच्चतम न्यायालय ने महिलाओं को बराबरी का हक़, आवाज़ बुलंद करने का जरिया और खुदकी स्वायत्ता को पहचान दी है।

सबरीमाला मंदिर में मिलेगा महिलाओं को प्रवेश
हालाँकि सबरीमाला विवाद के बाद भी जहाँ महिलाओं को मंदिर में प्रवेश मिलने में दिक्कत का समान करना पड़ रहा है, वहीँ यह बात जरूर तय है कि महिलाओं को निम्न स्तर का मानव समझने की सोच को उच्चतम न्यायलय द्वारा धराशायी कर दिया गया है। मौजूदा मुश्किलें, बेहद ही क्षणिक (momentary) मालूम पड़ती है, जैसा कि सति प्रथा को कानूनी रूप से अवैध घोषित करने के बाद तमाम विवाद हुए और अंततः समाज ने इस प्रथा को नष्ट करने की उपयोगिता को स्वीकार कर लिया था वैसे ही सबरीमाला विवाद में भी होना तय मालूम पड़ता है। और इसका प्रमुख कारण, महिलायें, पुरुषों के जितना ही मानव हैं और तार्किक रूप से ईश्वर को उतनी ही प्रिय भी (अगर धर्म के अनुसार इस बात को समझा जाये तो)।

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय, महिलाओं को ‘मासिक धर्म’ के वर्षों (10 से 50 वर्ष) में सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की मनाही की संवैधानिकता का आकलन कर रहा था। न्यायालय, केरला हिन्दू प्लेसेस ऑफ़ पब्लिक वरशिप एक्ट, 1965 (Kerala Hindu Places of Public Worship Act, 1965) के नियम 3 (बी) की संवैधानिकता जांच रहा था। जो बात इस मामले के अंतिम निर्णय का कारण बनी थी वह थी कि जब बात तीर्थ दर्शन के माध्यम से भगवान के साथ महिलाओं के संचार की हो तो आखिर कैसे पुरुषों द्वारा हासिल सामाजिक प्रभुत्व के आधार पर, महिलाओं पर लगे इस प्रतिबंध को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है?

न्यायालय ने अपने निर्णय में अंततः माना कि ​​महिलाएं, पुरुषों से किसी भी मायने में कमतर रूप से नहीं आंकी जा सकती हैं। इसके अलावा यह भी माना गया कि आस्था के ऊपर धर्म की पितृसत्ता (patriarchal nature of religion) को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

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तीन तलाक असंवैधानिक
सुप्रीम कोर्ट ने विवादास्पद इस्लामी अभ्यास, तीन तलाक पर प्रतिबंध लगते हुए, पुरुषों को तीन बार तलाक बोलते हुए अपनी पत्नियों को तुरंत छोड़ने की इजाजत को असंवैधानिक बताया। न्यायालय ने यह निर्णय सुनते हुए कहा कि ट्रिपल तालक महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

यह बात सोचने योग्य है, आखिर कैसे एक महिला को उसके हालात पर आसानी से छोड़ दिया जाता है और ऐसी मान्यता को धार्मिक मंजूरी भी दी जाती है। उच्चतम न्यायालय ने महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाते हुए यह निर्णय सुनाया कि भले ही धर्म में ऐसे अभ्यास को मान्यता दी जाती रही हो लेकिन कोई भी धर्म संविधान से ऊपर नहीं, और जहाँ संविधान महिलाओं को बराबरी के अधिकार देता और यह सुनिश्चित करता है कि देश में किसी भी व्यक्ति (पुरुष या महिला) के साथ अन्याय न हो पाए, वहीँ अगर धर्म किसी प्रकार के अन्याय को बढ़ावा देता है तो उसे अस्वीकार्य करार दिया जायेगा।

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इस मामले के जरिये भी एक बार फिर महिलाओं को समाज में आगे बढ़ने का एक जरिये मिला। जहाँ उनके खिलाफ हुए किसी अन्याय को हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं देखा जायेगा। आखिर क्यों किसी अन्याय पर चुप्पी सही होनी चाहिए? आखिर क्यों नहीं बराबरी, हमारे समाज का आधार होनी चाहिए? यह प्रश्न ऐसे हैं जिसपर हमे और आपको मिलकर सोचना होगा।

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हाल ही में चर्चा में आयी ‘मी टू’ (#MeToo) मुहिम इसी क्रम में एक कदम है जहाँ महिलाओं के अधिकारों को सामाजिक मान्यता देने की कोशिश हो रही है। जहाँ वो अपने अन्याय के खिलाफ व्यक्तिगत रूप से बोल रही हैं, न कि किसी सत्ता को उनकी जगह पर बोलने की राह देख रही हैं। न केवल उच्चतम न्यायालय बल्कि कई मायनों में समाज की सोच बदलती हुई दिखती है। यह जरूर है कि महिलाओं के अधिकार को लेकर बहस लगातार जारी है लेकिन जल्द ही बराबरी का अधिकार (पुरुषों के समान) एक आम बात होगी और हमारा समाज इस बात का जश्न मनाता हुआ दिखेगा।

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Sparsh Upadhyay

एक विचाराधीन कैदी हूँ। कानून की पढ़ाई भी की है। जितना पढ़ता हूँ, कोशिश रहती है कि उतना ही लिखूं भी। सच्चाई, ईमानदारी और प्रेम को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत समझता हूँ।

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